विशेष लेख
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किरीट ठक्कर।
राजधानी रायपुर से लेकर प्रदेश के गांव देहात तक मार खाते गरियाते उपेक्षा और ताने सहते, कई बार पत्रकारों की हत्या भी हो जाती है। इस सबसे अलग पत्रकारों पर राजनैतिक दबंगाई और पुलिसिया दमन की भी अनेक घटनायें है।
इस सबके बावजूद बहुत से पत्रकार अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ते ही रहे हैं, दरअसल पत्रकारिता एक जुनून है। दमनात्मक कार्यवाहियों के बाद भी देश का चौथा स्तंभ अपने हौसलें के दम पर टिका हुआ है। इस हौसलें को खाद पानी देने वालों से ज्यादा इसे कुरेदने, खुरचने, उखाड़ फेंकने और क्षतिग्रस्त करने वालों की संख्या ज्यादा है। कई बार अपने ही अपनों के पैरों कुल्हाड़ी मारने का काम करते हैं।
अम्बिकापुर के हमारे युवा पत्रकार साथी आदित्य गुप्ता लिखते हैं “पत्रकारों को आजकल कोई कुछ समझता ही नहीं, हां लेकिन, काम अगर पड़े – जैसे नाली की सफाई ना हो, गली में कुत्ता मर गया हो, कहीं से कचरा हटवाना हो, किसी ने बदसलूकी कर दी हो, पुलिस बात न सुने, कोई सरकारी मुलाज़िम घूस मांगे और वगैरह वगैरह…तब लोगों को पत्रकार जरूर याद आते हैं। चौथे स्तंभ का दर्जा जरूर मिला है। लेकिन न कोई व्यवस्था है, न सुविधा। कई बार तो अपने दम पर जान जोखिम में डालकर काम करते हैं। ऐसे में समाज के लिये काम करने वाले पत्रकार समाज से थोड़ा सम्मान तो डिजर्व करते हैं।
लेकिन वह मिलता नहीं।
संवेदनशीलता और संवेदनहीनता के दो किस्से : पांच अनाथों को मिला सहारा
पिछले दिनों गरियाबंद जिले के छुरा ब्लॉक के ग्राम मुड़ागांव के एक पत्रकार साथी तेजराम ध्रुव द्वारा एक द्रवित करने वाली खबर का प्रकाशन किया गया, सजग पत्रकार ने राष्ट्रपति के दत्तक पुत्र कहे जाने वाले कमार जनजाति के अनाथ बच्चों की सुध ली, अपने कर्तव्य का पालन किया, तब जाकर अचानक स्थानीय प्रशासन संवेदनशील हो गया, संभवतः खबर प्रकाशन के पहले तक स्थानीय प्रशासनिक अधिकारी / कर्मचारी रायपुर से जिला मुख्यालय आना जाना करते रहे। इसीलिये कुछ पता नहीं चल पाया, स्थानीय मैदानी अमला भी महीनों तक बेखबर रहा।
खबर प्रकाशन के बाद प्रशासनिक संवेदनशीलता जाग उठी, पत्रकार को दरकिनार किया गया, और माता पिता के देहांत के बाद दयनीय स्थिति में जी रहे विशेष पिछड़ी जन जाति के असहाय बच्चों की सुध ली गई। इन बच्चों का कमार आवासीय विद्यालय में प्रवेश कराया गया, अब इन्हें यहां निःशुल्क आवास भोजन शिक्षा मिलेगी। स्पॉन्सरशीप योजना के तहत प्रति माह 4 हजार रुपये भी मिलेंगे।
इसी छुरा विकासखंड से संवेदनहीनता का बरसों पुराना किस्सा भी फिजाओं में बिलबिला रहा है। यहां बरसों पहले पत्रकार उमेश राजपूत की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी। हत्यारों का आज तक पता नहीं चला ? ये समझना मुश्किल है कि राजपूत के हत्यारों को जमीन निगल गई या आसमान खा गया। तत्कालीन छुरा थाने में पदस्थ कुछ पुलिस कर्मियों की संदिग्ध गतिविधियां और थाने से ही हत्याकांड के सबूत गायब करने के आरोप सामने आये। कुछ पुलिसकर्मियों पर मामला भी दर्ज हुआ। किन्तु वही ढाक के तीन पात।
अस्तु, संवेदनशीलता और संवेदनहीनता के बीच पत्रकारों की अलख जारी है – वसीम बरेलवी का एक शेर है –
खुली छतों के दिये कब के बुझ गये होते,
कोई तो है जो हवाओं के पर कतरता है।





