बेढंगे कपड़ें अब बन गया भारत के होनहारों का फैशन, खतरे में भारत की संस्कार

ये है हमारे भारत के होनहार जो कर रहे है भारत की संस्कार को तार-तार; भारत सरकार लगाएं ऐसे परिधानों और फिल्मों में बेढंगे शूटिंग पर शीघ्र पाबन्दी  

“छत्तीसगढ़-24-न्यूज़” संतोष देवांगन 

अभी मैं जो लेख लिखने वाला हूँ, वो शायद आजकल के तथाकथित आधुनिकतावादी और स्वयं को समय के साथ चलने वाला विकसित वर्ग के समझते हों, उन्हें पसंद ना आए और वो लोग मुझे पिछड़ी सोच वाला और निम्न सोच वाला कहें और मेरा मजाक भी बनाएँ, पर मुझे इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि “बेशर्म कहलाने की अपेक्षा पिछड़ा कहलाना” मुझे पसंद होगा, क्योंकि आधुनिकता के नाम पर हो रही बेशर्मी और संस्कारहीनता के कारण ही हमारी गौरवमयी संस्कृति नष्ट होने की कगार पर है, जिसे हम ही पुनर्जीवित कर सकते हैं।



बढ़तीे संस्कारहीनता, मरती हुई संस्कृति – भाग 1
सबसे पहले प्रारंभ करना चाहूंगा, बचपन से, हम बचपन से ही जल्दी सोकर सुबह से जल्दी उठकर ईश्वर का ध्यान करते है , धरती को प्रणाम करने के बाद ही उसमें पैर रखते है , उगता सूरज को प्रणाम करते और अपने माता-पिता और बड़ों के चरण छूते है, विद्यालय जाते है तो अपने गुरूजनों का सम्मान करते और ये सब इसलिए कि, ये संस्कार हमें अपने संस्कारवान मातापिता और बड़े-बुजुर्गों  से मिले है
पर आजकल ये संस्कार हमें बहुत ही कम देखने को मिलते हैं, जो हमारी मरती हुई संस्कृति का बहुत बड़ा कारण है. जिसे पुनर्जीवित करने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी माता-पिता की है कि वे अपने बच्चों को फिर से संस्कारित करें।

फिल्मों की बेढंगी फैशन बन गई आज घर की महिलाओं के लिए सबसे बड़ा खतरा  – भाग 2

इस भाग में मैं बात करना चाहूंगा पहनावे की. यदि पहले और आज के समय में पहनावे की बात की जाए तो लड़कों में चाहे वो बच्चे हों या युवा कुछ खास फर्क नहीं आया है, पर लड़कियों के पहनावे में बहुत ही ज्यादा और बेढंगा परिवर्तन आया है, और इस बात के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं वे अभिभावकगण, जो पश्चिमी सभ्यता का अंधानुकरण के चलते स्वयं को आधुनिक और आजाद ख्याल का दिखाने के फेर में अपनी ही बच्चियों को ऐसे ऐसे परिधान लेकर देते हैं, जो आगे चलकर शर्मिंदगी और समाज में बढ़ते अपराध का कारण बनता हैं, जिनकी शिकार वो मासूम बच्चियाँ भी बन जाती हैं, जिनका कोई दोष भी नहीं होता, और जब कोई बड़ी घटना घट जाती है तब जाकर माता-पिता की आँखें खुलती हैं जब सब कुछ लुट चुका होता है।

बचपन से ही मैने देखा है कि, पहले के अभिभावक अपनी बच्चियों को फ्राॅक या स्कर्ट-टॉप ही लेकर दिया करते थे, जिससे शरीर हमेशा ढका, छिपा रहता था, पर आजकल टीवी, फिल्मों और फैशन की देखादेखी अपनी बच्चियों को बचपन से ही ऐसे-ऐसे कपड़े लेकर देते हैं, जो बहुत छोटे-छोटे और ऐसे होते हैं, जिसमें शरीर ढंकता कम दिखता ज्यादा है, फिर धीरे-धीरे उन बच्चियों को वैसे ही कपड़े पहनने की आदत बन जाती है, जिसे वो आधुनिकता, विकासशीलता और आजादी का नाम देकर पहनती हैं, और माता-पिता भी रोकने की बजाय उन्हें शह देते हैं, और जो लड़कियाँ सलवार-कुर्ती, साड़ी पहनती हैं, उनकी शालीनता की कोई प्रशंसा करने की बजाय “बहनजी” जैसे शब्द बोलकर उनका मजाक बनाते हैं, यही संस्कारहीनता का कारण बनता है. जबकि अपनी मरती संस्कृति और संस्कार को पुनर्जीवित करने के लिए फिर से सोचने की जरूरत है।



फटे चिथड़े कपड़ें जो गरीब भिखारी पहना करते थे अब बन गया फैशन  – भाग 3


पहनावे के संबंध में एक बात और कहना चाहूंगा, जो फिल्म, टेलिविज़न धारावाहिक, विज्ञापन और दिनोंदिन बिगड़ने बेढंगे फैशन ने पूरा गड़बड़ किया हुआ है, पहले जो चिथड़े गरीब भिखारी पहना करते थे, आज उसे फैशन के नाम पर बड़ी शान से पहने हैं और खुद को बड़े आधुनिक समझते हैं, आए दिन युवक, युवतियाँ, जगह-जगह फटे हुए जिंस पहने दिखाई देते हैं और खुद को आधुनिक समझते हैं, जबकि ये सब कपडा़ कंपनियों द्वारा बनाए जा रहे हैं, जो फैशन के नाम पर अपने बचेखुचे और फटे-पुराने कपड़ों को बेचकर मुनाफा कमा रहे हैं, और ये मूर्ख युवक-युवतियाँ मजे से मूर्ख बन रहे हैं। 

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