रानीतराई :- भारतीय राजनीति में व्यापक सुधार की जरुरत है ।ना केवल चुनावी स्तर पर बल्कि दलीय स्तर भी। वर्तमान में हो रहे चुनाव चुनाव के समीकरण से स्पष्ट है कि इस चुनाव में भी जातिवाद क्षेत्रियता, क्षेत्रियता व स्थानीयता का पूरी तरह बोल बाला है। आजादी के इतने वर्ष बाद भी और इतनी जागरूकता व आधुनिकता के बाद उम्मीद थी कि जातिवाद के बन्धन ढीले होन्गे लेकिन यह राजनीति में आज भी प्रमुख हथकण्डा है। हमारी राजनैतिक व्यवस्था ऐसे तरीकों को लेकर चल रही है यह विडम्बना ही है। जातिवादी पार्टियों ने लोकतंत्र नुकसान पहुंचाया है। साथ ही सत्ता का विकेन्द्रीकरण भी कहीं नहीं है। अधिकांश दल जातीयता,क्षेत्रियता व स्थानीयता का पोषण करते है। सही अर्थों में यही लोकतंत्र की हार है। पार्टिया येन केन प्रकारेण सत्ता में आने का जातिवादी प्रपंच रचती है। जातिवाद का यह हथकण्डा बहुत ही घृणित है। राजनैतिक पंडितों का मानना है कि जातिवाद को भडकाकर जीत जाना वस्तुतः हारने से भी बुरा है। समाज को विखण्डित करने, फूट डालने और समाज में एकता को नष्ट करने में जातिवाद के दुष्परिणाम को क ई बार देखे जा चुके है। पूर्व के राजनीतिज्ञों की जीवनी से पता चलता है कि वे हारना पसंद करते थे लेकिन जातिवाद या अवांछनीय हथकण्डे फैलाना नहीं। जातिवाद कम होने के बजाय बढा है। दुष्परिणाम स्वरूप जातीय वैमनस्यता में इजाफा हुआ है।जो समाज, देश व राज्य की एकता की राह में बाधक है।
पोलिटिकल डेमोक्रेसी को अगर मजबूत करना है तो व्यापक चुनावी सुधार की जरुरत है ।जातिवाद व जाति के नाम पर संरक्षण से सामाजिक लोकतंत्र की तरफ देश अग्रसर नहीं हो पा रहा है। संविधान में उल्लेखित अवसर की समानता के लिए जरूरी है कि इसका लाभ सभी वर्ग को मिले। राजनीति में जातिवाद का कोई स्थान नहीं होना चाहिए। सुयोग्य व उपयुक्त प्रत्याशियों के चयन का निर्णय करते समय पक्षपात का परित्याग उचित है। क्योंकि यह किसी विशेष जाति ,बिरादरी का या हितैषी आदि का सवाल नहीं है बल्कि वास्तव मेँ समस्त राष्ट्र या राज्य के भाग्य की जिम्मेदारी का है। वोट का सदुपयोग बहुत सोच समझकर राष्ट्रीय हित में करना चाहिए। राजनैतिक स्वतंत्रता के बाद बौद्धिक,आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक प्रगति की ओर जितना ध्यान दिया जाना चाहिए था उतना नहीं दिया गया। जबकि यह बहुत आवश्यक था। जिसके दुष्परिणाम स्वरूप कुछ लोगों को आज भी लोकतंत्र की महत्ता का पता नहीं है और जैसा चल रहा है वैसा ही स्वीकार लिया जाता है। ऐसी स्थिति में मतदाता को वोट की गरिमा समझाने व दायित्व को जगाने की आवश्यकता है। विशेष कर युवा मतदाता को समझने की जरुरत है क्योंकि राष्ट्र निर्माण में उनकी मुख्य भूमिका होती है। मतदाता की जिम्मेदारी व विवेक पूर्ण परिष्कृत दृष्टिकोण ही राष्ट्र व राज्य का भाग्य तय करता है। जब तक चुनाव में अवांछनीय हथकण्डो को आधार बना कर लडा और जीता जाएगा तब तक हमारे लोक तान्त्रिक देश की वास्तविक उन्नति नहीं हो सकेगी। मतदान के दुरूपयोग व सदुपयोग से ही राष्ट्र या राज्य की समृद्धि व अवनति की आधारशिला रखी जाती है। राजनैतिक तत्वों द्वारा व्यक्तिगत व दलगत लाभ को राष्ट्रहित की तुलना में अधिक महत्व देना घातक सिद्ध हो रहा है ।प्रत्याशी का मूल्यांकन उसके गुण ,सुयोग्यता, ईमानदारी, देशभक्ति व उदार व्यवहार आदि के आधार पर होना चाहिए न कि जाति व धर्म से ।सुयोग्य लोग उन्ही क्षेत्रों में चुने जाते है जहां मतदाताओं का दृष्टिकोण परिष्कृत हो। यदि मतदाता अपनी जिम्मेदारी को नही समझेगा तो समाज में अराजकता, शोषण व अशान्ति फैलेगी। चुनाव में राजनैतिक तत्वों के बीच शत्रुता व द्वेष बुद्धि आदि का कोई स्थान न हो ।जनता को संकीर्णताओं से ऊँचा उठाने के लिए प्रबुद्ध वर्ग को प्रयत्न शील रहना चाहिए। सच्चा लोकतंत्र लाने के लिए जाति,धर्म ,सम्प्रदाय व क्षेत्रियता आदि से उपर उठना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य होना चाहिए। तभी अपना लोक तान्त्रिक देश सर्वांगीण विकास की ओर अग्रसर हो सकता है।
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