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नंदावत पूस के गोठ बात – तुलेश्वर सेन के संग 

नंदावत पूस के गोठ बात – तुलेश्वर सेन के संग
“चना भाजी चनके, खाले बेटा मन के”

(पूस पर विशेष लेख): कोनो बिसेश बात ला लिखे तुलेश्वर सेन ले पहिली ओकर पाछू– भूत, चलत अउ अवइया बेरा के बारे मा चिंतन-मनन करे ला परथे। नंदावत पूस के गोठ बात पढ़ई मा आप मन ला अलकारहा लगही—कइसन मीठा विषय हावय! चलो, अपन गोठ सुरू करव, काबर सियान मन कहिथें—“पूस बीते, फूस फूस”

धान पान कांटे के पाछू अपन-अपन बियारा ला खलिहान मं सकेल के राख देवंय। ओनहारी में लाखड़ी, चना, गेहूं, मसूर ला धनहा खेत मं मूठा-मूठा छितरा के बोयंय; कोनो-कोनो मन नागर मा बोवत रहंय। धान लूए ला जावंय ता बेंदरा मन खन-खन करत खाई, अउ ओली-ओली टोर के अपन घर ले जावंय। किसान मन बड़े चतुर—अपन खेत के भाजी-राहेर छोड़के दूसर के खेत मा हाथ लमाय ला कभू नई छोड़ंय।

साँझ बेरा भाटा अउ दार डार के लस-लस ले रांधंय। ओकर ऊपर सुक्खा मिरचा-लहसुन के बघार—परसत बखत खांस-खांस के प्रान डहर पहुँच जाय। बखरी के चिरपोटी, पताल बंगाला, महामवत धनिया-लहसुन चटनी, हरियर मिरचा, अंगरा मं भूंजे सुक्खा लाल मिरचा, तावा पाना के अंगाकर रोटी, चीला-रोटी—सबके मजा अलगच होथे।

चना भाजी बर सियान मन कहिथें
“चना भाजी चनके, खाले बेटा मन के।”

साँझ होते ह सब्बो झन सकला के आरी-पारी खांसर-कोल्लर, गाड़ा-बइला पार करथें। दउरी फांद के मिन्जे लगाथें; खाय के पहिली एकरा पलटी, खाय के पाछू दुसर पलटी। अपन-अपन सुख-दुख गोठियाथें।

लइका मन अउ सियान मन दू-तीन दिन बियारा मं गाड़ा-खांसर के कुंदरा बना के रात भर भुर्री बार के सोय। ओमन दू बात बोले—
1. “लक्ष्मी ला अकेल्ला मत छोड़व।
2. “कोनो चुरा नई ले जावय।
“पहाती चार बजे गाड़ी चल जावय। बिहानियां चाय पीके पैरा फेंकें, रास सकेलें, भूंसा हटाके पूजा-पाठ करथें, सब ला हिस्सा बांटथें।
साँझ बेरा बढ़ौना भात—”सादा मन बर: सादा खीर, पूड़ी, भजिया
रंगीन मन बर: कूकरी-मछरी-दारू
अब त सब काम आँख झपकत हो जाथे।

किसानी के काम त जीयत ले मरत तक चलथे। बने फसल हो जाथे त खुशी-मंगल मना जाथे; घर परिवार मं पूजापाठ, गहना बनाय, जमीन खरीदी, लइका मन बर बिहाव।

गांव के सार्वजनिक जीवन मं घलो किसान मन पिछड़त नई—मड़ई, मेला, नाचगाना, जस-गीता-भागवत, सतसंग अब्बड़ चलथे। जांगर वाले मन चार महीना घर-परिवार ले दूर ठेकादारी, रोजगारी, ईटा-भट्ठा कमाय बर बड़े शहर जाथें। फेर अब सरकार के नवा नीति-नियम ले रोजगार गारंटी मं गांव के मनखे के घर-गांव मं काम अउ पईसा मिलत हे।

पहिली जहां लइका मन पढ़ई छोड़ देय, अब स्कूल-कालेज जा के घर-परिवार, समाज, जिला, प्रदेश अउ देश के नाव आगू बढ़ात हवंय।
कहावत हे…
बाबू पढ़ही त एक कुल आगू बढ़ही;
नोनी पढ़ही त दू-दू कुल के नाव चमही।

पुराना जुन्ना सियान पूस महीना मं ठंड ले बांचे बर छेना-भूसा के गोरसी, लकड़ी, संडेवा-अमारी काड़ी, चरोटा, अंगेठा मं भुर्री बारथें। चार झन बइठ के सुख-दुख गोठियाथें। कथरी-गठरी निकाल देय। तीर-तार मं कुकुर-बिलई-पीला ला बइठारथें। रधनी कुरिया डाहर लाली-करिया-धौरी गाय के हरदी डारे गरम दूध मंगाके मिल बाँट के पिथें।
पहाटिया अब गाय दुहे बर नई आवय। चोंगी, बीड़ी, माखुर वाले बबा मन अब दिखत नई। पक्की घर-द्वार होगे, गरवा घलो नंदावत हावय।
अब पानी बर पनिहारिन, खेत ले आवत खेतिहारीन—सब कम होगे। दाई-ददा ला छोड़ के विदेशी कुकुर पाले जात हें।

नवा जमाना बदलगे: 
स्वेटर, चादर, रजाई, टोपी, जैकेट, इनर, मोजा, एसी।
पर जवान लइका मन खुले आम दारू-गांजा-गुटखा के नसा कर-करके अपन जीवन ला खराब करत हें—येच दुखद परिवर्तन हावय।

बदलना प्रकृति के नियम—गरमी, सर्दी, बरसात, पतझड़, हरियाली, सुख-दुख, जीवन-मरण। फेर अतका झन बदलव कि अपन लेच दूरिहा न हो जा। तहां फेर अपन संस्कृति, दाई-ददा, परिवार, सामाजिक जीवन—सब भारी लगही।

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