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डॉ. बिजेंन्द सिन्हा जी का संपादकीय लेख “बच्चों में करें सद्गुणों का विकास”

रानीतराई :- मनुष्य विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना है। वह विधाता की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति भी है। हमारी संस्कृति में मनुष्य शरीर की काफी महिमा गायी गयी है। स्वस्थ जीवन का महत्व भी बताया गया है । परन्तु मौजूदा परिवेश में स्थिति विपरित प्रतीत होता है। वर्तमान समय में इंसानी जिन्दगी एवं समाजिक परिवेश में कटुता बढ़ रही है। परिवार में संस्कार व मूल्य भी तेजी से घट रही है। व्यक्तिगत एवं सामाजिक आत्मीय संबंधों के मूल्य का तेजी से क्षरण होने लगा है। समाज में हिंसा प्रतिहिंसा वैचारिक कलुषता पनपने लगा है जिसका प्रभाव भावी पीढ़ीयों पर भी पड़ने लगा है।
मौजूदा परिवेश में स्कूली छात्र-छात्राओं द्वारा हत्या व आत्महत्या की घटनाएं आम होती जा रही हैं। उनमें सहनशीलता कम हो रही है। बच्चों पर तनाव बढ़ रहे हैं। वे तनाव ग्रस्त हो रहे हैं।यह स्थिति संवेदनहीनता का परिचायक है ।खासतौर पर परीक्षा के रिजल्ट के समय बच्चे घोर तनाव ग्रस्त पाए जाते हैं। परिणाम पर हद से ज्यादा ध्यान और कैरियर के इस दौर में क ई बच्चे अपनी जीवन लीला समाप्त कर देते हैं। वर्तमान समय में अभिभावक अपनी संतान को सुख सुविधाएँ तो खूब दे रहे हैं लेकिन उन्हें उत्तम संस्कार नहीं मिल पा रहा है। बुद्धि प्रधान होते जा रहे युग में शिक्षा का अपना महत्व है परन्तु उत्तम संस्कार व जीवन मूल्यों का विकास भी जरूरी है।बच्चों व किशोरों का अपने माता-पिता से दूर रहने या एकाकी जीवन बिताने, कैरियर का दबाव, माता पिता का बच्चों से अत्यधिक अपेक्षा का दबाव,अकेलापन,आर्थिक समस्या व मानसिक रोग आदि आत्महत्या के कारणों में से है। तलाक़शुदा दम्पति की संतान, टूटते-बिखरते परिवार के सदस्य, मानसिक असंतुलन व शारीरिक बीमारियां जैसे कारण भी आत्महत्या करने की घटनाओं में बढ़ोत्तरी करते हैं। कुछ समाजिक कारणों के कारण माता पिता बच्चों की तुलना अक्सर दूसरे बच्चों से करने लगते है। लगातार बढ़ रहे आपसी तनाव ने किशोरों में आत्महत्या की प्रवृति को बढावा दिया है। स्कूली छात्र-छात्राओं में सहिष्णुता जैसे गुण क्षीण होती जा रहे हैं। बच्चों के अपने माता-पिता से दूर रहने या एकाकी जीवन बिताने के कारण उनका ध्यान हिंसात्मक विचारों की तरफ बढ़ रहा है। फिल्म टीवी धारावाहिक वीडियो गेम्स आदि के प्रभाव से बच्चों व किशोरों द्वारा हिंसात्मक गतिविधियों के समाचार भी मिलते रहते हैं। यूँ तो ये मनोरंजन के साधन होते हैं। ये सकारात्मक सीख भी देते हैं लेकिन ये मनोरंजन के साधन भी बच्चों व किशोरों के मन को हिंसा व नफरत के लिए प्रेरित करते हैं। परिवार में घटते संस्कार व मूल्य भी बाल अपराध व आत्महत्या के कारणों में से एक है। संवादहीनता, बाहरी भटकन व संगति के प्रभाव से सु मार्ग से हटकर कु मार्ग की तरफ बढ़ना आदि कारण भी हैं। सही मार्ग दर्शन नहीं मिलने से भटकाव बढ़ता जा रहा है। आए दिन इस तरह की अप्रिय घटनाएं समाज का हिस्सा बनते जा रहे हैं जिसके समाधान के उपाय समाज के विशेष कर प्रबुद्ध वर्ग का नैतिक दायित्व होना चाहिए। परीक्षा नौकरी धन्धा या अन्य किसी काम में सफलता नहीं मिलने की समस्या को लेकर भी बच्चों व किशोरों में आत्महत्या के मामले पढ़ने सुनने को मिल रहे हैं।
विलासिता एवं सुविधा युक्त जीवन को ही सफल जीवन का पर्याय मानने की धारणा के चलते अगर मासूमों को जान गंवानी पड़ रही है तो यह सोचने का वक्त है कि सभ्य समाज के नाम पर कैसा समाज हम बना रहे हैं एवं विकास का यह कैसा स्वरूप हमने दिया है। गलत कहाँ हो रहे हैं कि छात्रों को अपनी जान गंवाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। दरअसल माता-पिता व बच्चों के बीच सामंजस्य व समझदारी विकसित होना चाहिए। उम्र के हर दौर में मनोवैज्ञानिक से परामर्श लेना चाहिए। जबकि प्रचलित धारणा यह है कि पागलपन के इलाज के लिए ही मनोचिकित्सक से परामर्श लेना चाहिए ।व्यक्तिगत एवं सामाजिक आत्मीय संबंधों को मजबूत बनाने की जरुरत है। विपरीत परिस्थितियों से जूझने की क्षमता भी विकसित किया जाना चाहिए। वर्तमान समय में भाग-दौड़ भरे जीवन में सुखी समुन्नत जीवन जीने का प्रयास हो न कि सिर्फ अर्थ उपार्जन को ही जीवन का ध्येय माना जाय। बच्चों के खिलाफ़ बढ़ते अपराध और आत्महत्या की घटनाएं को गम्भीरता से लेना चाहिए।
प्रसिद्ध अंग्रेजी कहावत है एवरि क्लाउड हैज अ सिल्वर लाइनिंग। यानी जीवन में दुर्भाग्य के कितने ही काले बादल क्यों न हों उनमें आशा की सुनहरी किरण छिपी ही रहती है। भौतिक
सुख-सुविधाओं के लिए ही अर्थोपार्जन से भी कहीं अधिक महत्वपूर्ण है उन्हें प्रेम सौहार्द्र एवं संस्कारों की भाषा सिखाना की। विचार को परिपक्व बनाया जाना चाहिए जिसमें विपरीत परिस्थितियों के साथ तालमेल बैठाने की क्षमता है। जीवन दृष्टिकोण भी परिलक्षित होना चाहिए। मौजूदा परिवेश में बालकों में परस्पर आत्मीयता सहिष्णुता उदारता शिष्टता क्षमाशीलता सहानुभूति सहयोग जैसे मानवोचित सद्गुणों का विकास अपेक्षित है ताकि ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो। इन सभी समस्याओं के समाधान के लिए सहमति बनाने की जरुरत है। समाज और गैर-सरकारी संगठन सभी को मिल कर बच्चों के जीवन व बेहतर भविष्य के बारे में सोचना चाहिए।
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