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डॉ. बिजेन्द सिन्हा जी का संपादकीय लेख “शान्ति व सदभावना के पथ पर चलता रहे स्वतंत्र भारत का गणतंत्र”

रानीतराई :- आज अपने राष्ट्र को गणतंत्र बने 73 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। लम्बे स्वाधीनता आन्दोलन के बाद अपना देश पराधीनता की बेड़ियों से मुक्त हो पाया था। आज हमारा देश चहुँमुखी विकास कर विश्व समुदाय में स्थान बनाया है। कई चीजें बदली हैं लेकिन कुछ समस्याएं आज भी वैसी है जैसे आजा दी के समय थी ।आज भी लोग विविध व विकट समस्याओं से लोग जूझ रहे हैं। कुपोषण असुरक्षा आतंकवाद बेरोजगारी बढ़ती महंगाई गरीबी शोषण विषमता पर्यावरण प्रदूषण हिंसा अपराधीकरण जाति व धर्म के नाम पर बंटा समाज आदि गम्भीर समस्याएं हैं। आजादी के समय देश सिर्फ दो भागों में विभाजित हुआ था लेकिन आज धर्म जाति वर्ग सम्प्रदाय के आधार पर कई टुकड़ो में विभक्त हो गया है जिससे सामाजिक सौहार्दरता में कमी आई है। लगता है हमारे राष्ट्रीय अस्तित्व व मानवीय गरिमा ही खतरे में न आ जाए। आज का भारतीय समाज जिस तरह टुकड़ो में बंट कर मूल्य ही न हो रहा है वह रास्ट्रीय व मानवीय जीवन की गरिमा को कम करता है। जाति धर्म के नाम पर आए दिन शिगूफा छोड़ा जाना व जनता की भावनाओं को आहत करने से जनमानस विचलित हो जाता है। धर्म जाति भाषा प्रान्त सम्प्रदाय के आधार पर जिस तरह की संकीर्णता का प्रदर्शन इन दिनों हो रहा है उससे देश व समाज के बिखरने का खतरा है। अलगाववाद संविधान विरोधी व राष्ट्र विरोधी तत्व भी इसी तरह की पृष्ठभूमि पर खड़े होते हैं। वर्तमान समय में जातिगत व धार्मिक ध्रुवीकरण का माहौल निर्मित होना चिन्ता का विषय है । ध्रुवीकरण स्वतंत्र निष्पक्ष शान्ति पूर्ण व पूर्ण लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर सवाल खड़े करता है।

राजनैतिक दलों ने सत्ता के लिए ध्रुवीकरण का खतरनाक रास्ता अपनाया है। यह असंवैधानिक व अलोक तान्त्रिक है। धर्म व जाति आधारित राजनीति ने देश का काफी नुकसान किया जिसका परिणाम पूरे देश ने देखा।
ध्रुवीकरण से समाज में वैमनस्य विभेद विभाजन की दुखद दीवारें खड़ी हो जाती है। संविधान की प्रस्तावना व्यक्ति व रास्ट्र की एकता व अखण्डता की गरिमा बनाए रखने के लिए लोगों के बीच भाईचारे को बढ़ावा देते हैं लेकिन धार्मिक ध्रुवीकरण विभाजनकारी व फुट डालो और राज करो की नीति को पोषित करती है। ध्रुवीकरण हिंसा व अशान्ति का कारण भी बन सकता है। यह राष्ट्र की प्रगति मे बाधक भी है। ध्रुवीकरण का सीधा असर देश के सौहार्द पर पड़ता है।

संवैधानिक मूल्यों के संरक्षण की जरुरत है । संविधान की सुचारू व्यवस्था के लिए अनिवार्य ऐसी व्यवस्था हो जिसमें सब सहज और सुरक्षित महसूस करें। हमारे संविधान का निर्माण धर्म पंथ जाति लिङ्ग के आधार से नहीं हुआ। संविधान के मूल में धर्म निरपेक्षता की अवधारणा है लेकिन लगता है कि राष्ट्रीय परिदृश्य में सास्कृतिक एकता व सामाजिक सौहार्द्रता में कमी आई है। अपने जैसे लोगों से संबंध बनाना व अपने से भिन्न मत वाले के प्रति विमुखता का भाव अनेकता में एकता और विविधता के बीच समता में बाधक है।इससे धर्म निरपेक्षता का ताना बाना बिगड सकता है। आजादी की लडाई में सभी जाति व धर्म के लोगों का योगदान रहा है। जाति धर्म व मजहब के नाम पर तनाव व भेदभाव देश हित में नहीं है। संविधान ने भी इस वर्ग भेद को अस्वीकारा है। धर्म व मजहब को किसी राजनैतिक हित या शासन के समर्थन व विरोध के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिये। संविधान सबको समान नजर से देखता है। वर्ग जाति धर्म सम्प्रदाय के आधार पर भेदभाव एक को सम्मान व दूसरे को धृणा की दृष्टि से देखना व घ्रणा करना वैचारिक ही मानवता की दृष्टि से भी उचित नहीं है। लोगों की भावनाओं को विपरीत रूप से भड़काना न देशहित में है न धर्म के हित में। घृणा द्वेष हिंसा नफरत व अनैतिकता के लिए न मानवीय जीवन में कोई स्थान हैं न राष्टीय जीवन में। राजनीति निरन्तर सत्ता केन्द्रित होती जा रही है। लोकतंत्र का आधार जनता का न होकर सत्ता के लिए राजनीतिक गठजोड़ तक सिमटता जा रहा है। आजादी के इतने वर्ष बाद भी सामाजिक अन्याय असन्तुलन असमानता व्याप्त है। जात पात के नाम पर टुकड़ों में बंटे अपने अगठित समाज को फिर से एकता और समता के सूत्र में बाँधने की आवश्यकता है।छुआ-छूत भेदभाव के लिए कानून बन जाना ही सब कुछ नहीं। उसके लिए अभी वातावरण बनाने के लिए बहुत काम करना होगा। जो राष्ट्र के भौगोलिक सामाजिक सांस्कृतिक सामाजिक स्वरुप को विभाजित करे उसे हर कीमत पर हमे दूर करना होगा। समानता व न्याय का विचार ही सर्वोत्तम होना चाहिए। सभी धर्म के लोगों के बीच भाईचारा व सदभाव बना रहे। आज जितनी भी भ्रान्तियाँ व समस्याऐ दिखती हैं उसके पीछे सिर्फ कट्टरता ही है। सह अस्तित्व की संस्कृति धारणकरने की जरुरत है ।
अनेकता में एकता विविधता के बीच समता भारतीय संस्कृति की चिरन्तन विशेषता रही है। अपने से भिन्न मत को सहने की भावना विकसित न रही तो देश में हमेशा क्लेश अशान्ति व कटुता जनमानस को विचलित करती रहेगी। इस समस्याओ के समाधान के लिए भावनात्मक परिवर्तन लाना पड़ेगा। उन परम्पराओं मे परिवर्तन लाना पड़ेगा जो तथाकथित ऊच नीच माने जाने वाले लोगों को धर्म व जाति के नाम पर भेदभाव के लिए उकसाती है। समता एकता और मिलजुलकर रहने की अभिरुचि जितनी अधिक होगी समाज की समर्थता सभ्यता उसी क्रम में बढती चली जाएगी। एकता को जीवन्त रूप देने के लिए समन्वयकारी रसायन की जरुरत है ।व्यक्तिवादी संकीर्णता के स्थान पर वसुधैव कुटुंबकम जैसी आत्मीयतापरक भावना को स्थान एव महत्व देना होगा। जो इन्सान के हृदय को आपस में जोड़ने का काम करती है। न सिर्फ देश मे बल्कि विश्व मे व्यापत विविध धर्म सम्प्रदाय एवं समाज की विषमता को उन्हें एक सूत्र में पिरो सके। हम विचारों श्रद्धा जाति पंथ को खुद के टुकड़े करने के लिए इस्तेमाल न करें। संविधान की सुचारू व्यवस्था के लिए अनिवार्य ऐसी व्यवस्था हो जिसमें सब सहज और सुरक्षित महसूस करें। देश का भविष्य जनता पर निर्भर है उनके विवेकपूर्ण व परिष्कृत दृष्टिकोण की जरुरत है जिससे ऐसे शासन तंत्र विकसित हो जिसमें जातिवर्ग मत धर्म पंथ आदि विभाजक रेखाओं का कोई स्थान न हो। सदभाव हमारी संस्कृति का मूल है। गणतान्त्रिक परम्पराओं को बनाए रखने और समग्र व समावेशी भावना विकसित करने की जरुरत है। सर्व धर्म समभाव से राष्ट्र विकास पथ पर अग्रसर हो सकता है,देशभक्ति व राष्ट्रहित सर्वोपरि होना चाहिए।

” गणतंत्र दिवस की हार्दिक बधाई एवं बहुत-बहुत शुभकामनाएँ ”

आपका सेवाभावी शुभचिंतक
बिजेन्द सिन्हा निपानी

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