रानीतराई :- लोकतान्त्रिक देश में मतदाता ही देश का भाग्य निर्माण कर्ता है। उसके पास मतदान की ऐसी ताकत होती है जिसके सदुपयोग व दुरूपयोग से देश या राज्य की समृद्धि व अवनति की आधारशिला रखी जाती है। वोट को गम्भीरता से न लेना अपने नागरिक कर्तव्य एवं उत्तरदायित्व की गरिमा को अस्वीकार करना है। वोट को सुयोग्य लोगों को ही स्थानांतरित किया जाना ही उपयक्त है। देश व राज्य का भविष्य निश्चित रूप से बात पर निर्भर है कि वोटर अपने दायित्व को किस हद तक समझने लगा और उसका सहयोग व साहस किस हद तक जागृत हुआ। यदि मतदाता सामान्य मनःस्थिति में रहेगा तो फिर शासन में उत्कृष्टता का समावेश सम्भव नहीं होगा। अतः उसके दूरदर्शी सोच व विवेक पूर्ण दृष्टि कोण की जरूरत है। चूंकि यह बातें इसलिए प्रासंगिक है क्योंकि वर्तमान में हो रहे विधानसभा चुनाव जातिवाद क्षेत्रियता व स्थानीय ता के कुचक्र से घिरा हुआ है। अधिनायकवाद भी सुसुप्तावस्था में हावी है। चुनावी समीकरण में जातिवाद, क्षेत्रियता व स्थानीयता जैसे भावनात्मक मुद्दों का जमकर इस्तेमाल किया जा रहा है। यह इतना हावी हो गया कि लगता है कि मूल मुद्दा पीछे छूट गया है। आजादी के इतने वर्ष बाद भी विधानसभा जैसे गरिमामयी चुनाव में जातिवाद का साया पडना चिन्ता का विषय है। ऐसी विसंगतियों पर काबू पाने के लिए बडे प्रयासों की आवश्यकता है। जागरूक जनता द्वारा सुनियोजित प्रजातंत्र ही अपना आदर्श और उद्देश्य पूर्ण कर सकता है। यदि जनता अपनी जिम्मेदारियों को नहीं समझती और उसका पालन ठीक से नहीं करतीं तो अव्यवस्था अशान्ति और अराजकता जैसे विभिषिकाऐ उपस्थित होता है। तब अनाचार, अपराध आदि की अनेक दुष्परवृत्तिया सामाजिक क्षेत्र में सामने आती है। तब स्थिति प्रतिकूलप्रतीत होता है। एक से बढकर एक घोषणाओं से लगता है कि राजनीति के केंद्र में सत्ता ही है।
विचार निरर्थक हो गयी है। ऐसा लगता है कि जनता चुनावी समीकरण का हिस्सा है। ऐसे परिवेश में जनता को अपनी अस्मिता एवं स्वाभिमान को जगाने की आवश्यकता है। रे
राजनैतिक पार्टियां अपनी उपलब्धियों का बखान करने में मस्त है। फिर भी आम जनता के स्वस्थ व बेहतर जीवन जीने के अवसर पैदा करना मुश्किल प्रतीत होता है। राज्य की अर्थव्यवस्था लडखडाया हुई है। ऐसे में सामाजिक विधि व्यवस्था को पूरी तरह से ध्यान में रखते हुए निर्धारित की ग ई आर्थिक नीतियों ही बेरोजगारी पर अंकुश एवं लोगों को व्यवस्थित व सुविधा युक्त जीवन का अवसर दिला सकती है। श्रमनिष्ठा एवं ईमानदारी ही अर्थ व्यवस्था को मजबूत कर सकता है। अपने काम के प्रति अटूट निष्ठा एवं ईमानदारी का अनुसरण ही समाज एवं देश की प्रगति का स्थायी आधार है। कुपोषण,स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसी आवश्यक सुविधाओं के लिए ही आर्थिक साधनों का सदुपयोग किया जाना चाहिए। तभी राष्ट्र या राज्य की प्रगति सम्भव है। अर्थ व्यवस्था की मजबूती के लिए सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर नौकरियों के लिए नयी नीतियों बनें एवं युवाओं को कौशल सुविधा का अवसर मिले। अब समय आ गया है कि मतदाताओं को अपना विवेक का उपयोग करना अनिवार्य है। जनता में लोक तान्त्रिक निष्ठा बनी रहे। इसके लिए मतदाताओं का विवेक जागृत करना ही उचित व प्रभावकारी साधन है। प्रजा तान्त्रिक शासन व्यवस्था का असली मालिक मतदाता ही है।