CG24NEWS :- मनुष्य विधाता की सर्वश्रेष्ठ रचना है। यह विधाता की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति भी है। मनुष्य को सृष्टि का सबसे सर्वश्रेष्ठ प्राणी कहलाने का गौरव प्राप्त है। सृष्टि के अन्य प्राणी व मनुष्य में बौद्धिक चेतना शक्ति का ही अन्तर है। वैज्ञानिक प्रगति व भौतिक विकास के साथ मानवीय चेतना की दिशाधारा मानव सभ्यता व संस्कृति को ही चुनौती देने लगी है। भौतिक उपलब्धियां कितनी ही महत्तवपूर्ण हो वे तब तक उपयोगी सिद्ध नहीं होगी जब तक उसमें रचना त्मक प्रवृत्तियां न जुडी हो। आज मनुष्य बुद्धि व साधनों की दृष्टि से विकसित हुआ है लेकिन मानवीय गुणों का पतन हो रहा है। पश्चिमी जीवनशैली के प्रभाव के चलते पारिवारिक विघटन के दौर से भारतीय समाज भी अछूता नहीं रह पाया है। नैतिकता पर उच्छृंखलता हावी हो रहा है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता का आग्रह अलग रूप लेने लगा है। उपभोक्तावाद व स्वच्छंदता के चलते लिव इन रिलेशनशिप व समलैंगिक विवाह की अवधारणा पनपने लगी है।
सभ्यता व संस्कृति का विकास परिवार संस्था के आरम्भ से ही जुड़ती चली आ रही है। सभ्यता और संस्कृति का आरम्भ परिवार की पाठशाला से ही होता है। सुसंस्कारिता यानि मानवीय गरिमा गरिमा के अनुरूप मर्यादाओं के परिपालन के कारण मनुष्य सच्चे अर्थों में मनुष्य बनता है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता की आड में लिव इन रिलेशनशिप व समलैंगिक विवाह जैसी व्यवस्था के कारण ही पारिवारिक मूल्यों के साथ सभ्यता व संस्कृति भी दांव पर लगने जा रही है। मनुष्य की चेतना मानवीय गरिमा को ही लाँघकर आगे बढ रही है। आधुनिक शहरों में परिवारों के टूटन दरकन का दौर वहाँ की उपभोक्ता वादी संस्कृति से शुरू हुआ। वर्तमान समय में जो भौतिक विकास हुआ उसी के साथ वहां पर भौतिकता से प्रेरित जीवनदृष्टि व जीवनशैली भी विकसित हुई। इससे व्यक्तिगत स्वतंत्रता की आड़ में उच्छृंखलता बढती गयी। परिवार संस्था को व्यक्ति की स्वतंत्रता छीनने वाला उपक्रम सिद्ध करने वाले सिद्धांत गढ़े गये। परिवार की महत्ता विलक्षणता व मानव सभ्यता के विकास में परिवार की भूमिका को समझे बिना इसके महत्व को खत्म करने का उन्माद शुरू हो गया है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता की आड़ में व्यक्तिगत स्वतंत्रता उन्मुक्तता व उच्छृंखलता के चलते परिवार के अन्तहीन टूटन का सिलसिला चल पड़ा। इस राह पर चलते लोग ऐसी स्थिति पर आ गये जहाँ संयुक्त परिवार तो दूर मात्र सिन्गल पैरेन्ट फैमिली यानि एकल परिवार को ही परिवार के रुप में मान्य किया जा रहा है। यह उन्माद यहाँ तक पहुंचा कि अब आधुनिक भारतीय समाज में सेम सेक्स फैमिली अर्थात समलैंगिक परिवार भी होने लगे हैं। भौतिक व वैज्ञानिक प्रगति के साथ साथ पनपा यह पारिवारिक व नैतिक पतन विदेशों से अब भारतीय समाज में अपनी जड़े जमाने लगे हैं ।समलैंगिक संबंधों की यह व्यवस्था सीधे विवाह संस्था के मूल्यों के गिरावट का संकेत देती है। पशु पक्षी भी प्राकृतिक व्यवस्था के अनुसार नर मादा के रूप में अपना जीवन चर्या निभा रहे हैं। परन्तु भौतिक विकास की अन्धी दौड़ व स्वच्छंदता के चलते मानवीय चैतन्य शक्ति ने प्राकृतिक व्यवस्था को ही अपने अनुकूल संचालित करने का प्रयास कर रही है। लिव इन रिलेशनशिप की व्यवस्था भी काफी आगे बढ गयी है। राष्ट्रीय स्वाधीनता के इन वर्षों में भौतिक विकास तो बहुत हुए परन्तु पारिवारिक मूल्यों के स्तर में गिरावट व जीवन मूल्य बेतहाशा ध्वस्त हुआ है। लिव इन रिलेशनशिप व समलैंगिक विवाह जैसी व्यवस्था के इन्हीं घटते पारिवारिक मूल्यों का परिचायक है ।स्वतंत्रता का अर्थ नैतिकता की अवहेलना या फिर जीवन मूल्यों की अवमानना नहीं है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता की आड़ में यह व्यवस्था मानवीय गरिमा व पारिवारिक मूल्यों का उल्लंघन है जो अपनी संस्कृति के विरुद्ध अप संस्कृति को जन्म देती है। इन नये प्रचलनो के संरक्षण से भारतीय दर्शन की गरिमा व मर्यादा टूटती आई है। आधुनिक समाज की यह नवीन अवधारणा मानवीय मर्यादाओं का उल्लंघन है।ऐसी ही अपसंस्कृति ने वैवाहिक व गृहस्थ जीवन को नष्ट भ्रष्ट कर रहा है। ऐसी जीवन चर्या से अपराध बढ रहे हैं। मौजूदा परिवेश में लिव इन रिलेशनशिप मे आए दिन आपराधिक काण्ड होते देखा जा सकता है। ये प्रवृत्तियों परिवार संस्था पर संकट की द्योतक हैं जो परिवार निर्माण में बाधक है। निश्चित ही सामाजिक जकडन के बन्धन ढीले होने चाहिए लेकिन मानवीय गरिमा का उल्लंघन भी नहीं होना चाहिए। मानवीय गरिमा का उल्लंघन करके समाज का हित नहीं हो सकता ।क्योंकि इसी आधार पर समाज की व्यवस्था व शान्ति टिकी होती है। एक दौर था जब दो व्यक्तियों का प्रेम स्त्री-पुरुष के रूप में पति पत्नी के संबंध के रूप में होता था।जो प्यार विश्वास भावनात्मक संबंध समर्पण व सामन्जस्य की धरा पर टीका होता था। माता-पिता अपने बच्चों व उनकी संतानों के साथ प्रेम से रहते थे। गृहस्थ जीवन धर्म संयम त्याग एवं सहनशीलता का परिचायक था। इन गुणों के समावेश से वैवाहिक जीवन व गृहस्थ जीवन सुख समृद्धि और विकास का आधार बनकर चलता था। जहाँ जहाँ वैवाहिक जीवन में प्रेम व आत्मीयता के विस्तार के साथ सामाजिक समरसता का आधार भी रहता था। यह परिवार का मूल स्वरूप था लेकिन लिव इन रिलेशनशिप में सहज स्वाभाविक प्रेम आपसी रिश्ते संवेदना आत्मिक संबंध कम और यौन स्वच्छंदता व उपभोक्ता वादी प्रवृत्ति अधिक परिलक्षित होता है। व्यक्तिगत स्वतंत्रता की आड में यह जीवन मूल्यों उल्लंघन है। वर्षो पुरानी मजबूत भारतीय पारिवारिक व्यवस्था में स्त्री पुरुष विधिवत रूप से साथ साथ रहते थे। सन्तानों का जिम्मेदारी से पालन होता था। आधुनिक भारतीय समाज में लिव इन रिलेशनशिप यानि बिना विवाह साथ रहने और सन्तानों को जन्म देने की प्रवृत्ति भी विकसित होने लगी है। लिव इन रिलेशनशिप में सन्तानोंत्पत्ति के सन्दर्भ में भी अविवेक पूर्ण रवैया अपनाया जाता है।
इस तरह का सह जीवन जब मन करे साथ रहो और बाद में अलग हो जाने की छूट देता है। उस स्थिति में किसी का किसी के प्रति वैधानिक दायित्व नही बनता । न आपस में न बच्चों के प्रति। ऐसे बच्चे अपने विकास के साथ जो मानसिक एवं भावनात्मक संत्रास भोगते हैं वह मनोवैज्ञानिकों व मनोचिकित्सको के शोध का विषय बन चुका है। परिवार द्वारा मिलने वाली सामाजिक एवं भावनात्मक सुरक्षा तो इन बच्चों से कोसों दूर रहते हैं। ऐसी व्यवस्था मजबूत भारतीय पारिवारिक व्यवस्था पर संकट की द्योतक हैं।इन विसंगतियों के समाधान के लिए पारिवारिक मूल्यों की स्थापना ही विकल्प है। पारिवारिक मूल्यों की पुनःस्थापना में ठोस कदम उठाए जाए।
आपका शुभचिंतक
डॉ. बिजेन्द सिन्हा
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डॉ. बिजेन्द सिन्हा जी का संपादकीय लेख “मानवीय गरिमा का ना हो उल्लंघन”

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